अपना तो कोई नहीं, देखी ठोकी बजाय।
अपना अपना क्या करि मोह भरम लपटायी।।
कबीरदास कहते है कि बहुत कोशिश करने पर, बहुत ठोक बजाकर देखने पर भी संसार में अपना कोई नहीं मिला। इस संसार के लोग माया मोह में पढ़कर संबंधो को अपना पराया बोलते हैं। परन्तु यह सभी सम्बन्ध क्षणिक और भ्रम मात्र है। [113]
जहां काम तहां नाम नहि, जहां नाम नहि काम ।
दोनो कबहू ना मिलै, रवि रजनी एक ठाम।।
कबीरदास कहते है कि जहाँ काम वासना होती है वहाँ प्रभु नहीं रहते हैं, और जहाँ प्रभु रहते हैं वहां काम, वासना नहीं रह सकते हैं। इन दोनों का मिलन उसी प्रकार संभव नहीं है जिस प्रकार सूर्य और रात्रि का मिलन संभव नहीं है। [112]
कबीरा गर्व न कीजिये उंचा देखि आवास।
काल परौ भुंइ लेटना उपर जमती घास।।
कबीरदास कहते है कि अपने ऊँचे ऊँचे आवास पर गर्व नहीं करना। चाहिए। क्योंकि समय परिवर्तन होने पर कल तुम्हें जमीन पर घास के ऊपर लेटना पड़े। अर्थात किसी व्यक्ति को किसी भी बात या वस्तु पर घमण्ड नहीं करना चाहिये क्योंकि समय परिवर्तन होने पर सब कुछ क्षण भर में नष्ट हो जाता है। [111]
मूरख संग न कीजिए , लोहा जलि न तिराई ।
कदली-सीप-भूवंग मुख, एक बूंद तिहँ भाइ।।
कबीरदास कहते है कि मूर्ख व्यक्ति का साथ कभी नहीं करना चाहिए, इससे कुछ भी फलित नहीं है। जैसे लोहे की नाँव पर चढ़कर कोई पार नहीं जा सकता है। वर्षा के पानी की बूँद केले पर गिरी तो कपूर बन गया, सीप पर गिरी तो मोती बन गई और वही पानी की बूँद सर्प के मुँह में गिरी तो विष बन गई। अतः संगति का बहुत महत्त्व है। [110]
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप ।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
कबीरदास कहते है कि अति किसी भी चीज की अच्छी नहीं होती है। न तो अधिक बोलना अच्छा होता है और न ही आवश्यकता से अधिक चुप रहना सही होता है। जैसे न तो अधिक वर्षा अच्छी होती है और न ही अधिक धूप अच्छी होती है। [109]
आतम अनुभव ज्ञान की , जो कोई पुछै बात ।
सो गूंगा गुड़ खाये के,कहे कौन मुख स्वाद।।
कबीरदास कहते है कि परमात्मा के ज्ञान का आत्मा के अनुभव के बारे में यदि कोई पूछता है तो इस अनुभव को बतलाना कठिन है। जिस प्रकार कोई गूंगा गुड़ खाकर उसके स्वाद को नहीं बता सकता है। [108]
सरवर तरुबर संतजन चौथा बरसे मेह।
परमारथ के कारने चारो धरी देह।।
कबीरदास कहते है कि सरोवर, वृक्ष, संत व्यक्ति और चौथा वर्षा के मेघ यह चारों दूसरों की भलाई के लिये ही शरीर को धारण करते हैं। [107]
जिहिं घर साधु न पूजिये, हरि की सेवा नांहि।
ते घर मरघट सारखे, भूत बसै तिन मांहि।।
कबीरदास कहते है कि जिस घर में ईश्वर की भक्ति और साधुओं का सम्मान नहीं होता है, वह घर मरघट के समान होता है, वहाँ भूतों का निवास ही रहता है। अर्थात प्रत्येक सदगृहस्थ को अपने घर में साधुओं की सेवा और ईश्वर की भक्ति करनी चाहिये। [106]
कबीर जीवन कुछ नहीं, खिन खारा खिन मीठ।
कलहि अलहजा मारिया, आज मसाना ठीठ।।
कबीरदास कहते है कि यह जीवन कुछ नहीं है, पल भर में खारा है और पल भर में मीठा है। जो वीर योद्धा कल युद्धभूमि में मार रहा था, वह आज वह शमशान में मरा पड़ा है। [105]
इन्द्रिन केरे बसि परा, भुगते नरक निशंक।।
कबीरदास कहते है कि ज्ञानी हमेशा निर्भय रहता है, क्योंकि उसके मन में परमात्मा के लिए कोई शंका नहीं होती है। लेकिन वह जो इन्द्रियों के वशीभूत होकर विषय भोग में पड़ा रहता है, उसे निश्चित ही नरक की प्राप्ति होती है। [104]
जो पाई भीतर लखि परै,भीतर बाहर एक।।
कबीरदास कहते है कि सभी व्यक्तिओं के ह्रदय में ईश्वर तो एक ही है, परन्तु बाहर की और इसके अनेक भेद है। जिस व्यक्ति ने अपने ह्रदय के अंदर ईश्वर दर्शन कर लिये, उसके लिये तो अंदर और बाहर ईश्वर एक ही है। [103]
सूखा काठ न जानि है, कितहूं बूड़ा मेह।।
कबीरदास कहते है कि पानी के गुण को तो हरा वृक्ष ही जानता है, क्योंकि उसी के प्रभाव से वह फलता फूलता है, परन्तु सूखी लकड़ी को कितना भी पानी में डूबो दो, वह उसके प्रभाव से फलती फूलती नहीं है। अर्थात सद्गुरुओ के ज्ञान का प्रभाव योग्य या जिज्ञासु व्यक्तियों पर ही होता है, अयोग्य व्यक्तियों पर नहीं होता है। [102]
अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहिं करै प्रतिपाल।
अपनी ओर निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल।।
अपनी ओर निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल।।
कबीरदास कहते है कि पुत्र ज्ञानी हो या अज्ञानी, अच्छा हो या बुरा जैसा भी हो, माता-पिता अपने पुत्र का पालन पोषण करते हैं। इसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्य को पुत्र की भाँति अपनी मर्यादा में रहते हुए ज्ञान की सीख देता है। [101]
शिष तो ऐसा चाहिए, गुरु को सब कुछ देय।।
कबीरदास कहते है कि गुरु को निष्काम, निर्लोभी और संतोषी होना चाहिए। गुरु को अपने शिष्य से कुछ लेने की अपेक्षा कभी नहीं करनी चाहिए। परन्तु शिष्य ऐसा होना चाहिए कि वह गुरु को अपना सब कुछ अर्पण कर दे, तभी उसे ज्ञान की प्राप्ति होगी। [100]
जासो हिरदा की कहूं, सो फिर मारे डंक।।
कबीरदास कहते है कि इस संसार में ऐसा कोई नहीं है जिससे हम अपने ह्रदय की बात बिना किसी भय के कह सके। जो कोई भी अपने ह्रदय की बात किसी से कहने का प्रयत्न भी करता है तो वह उसके ह्रदय की वेदना को गंभीरता से नहीं लेता है और उपहास के रूप में सर्प के समान डंक मारता है। [99]
दिन दस के ब्यौहार कौं,झूठे रंग न भूल।।
कबीरदास कहते है कि मानव जीवन सेमल के फूल की तरह है. जिस तरह सेमल का फूल रुई बनकर सब जगह उड़ जाता है, मानव जीवन भी इसी प्रकार क्षणभंगुर है. इसलिये हमें इस दस दिन जीवन के झूठे रंग में रंगकर अभिमान नहीं करना चाहिये। [98]
निर्पक्षी की भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान।
निरदुन्दी की मुक्ति है, निर्लोभी निर्बान।।
कबीरदास कहते है कि जाति, वर्ण, सम्प्रदाय आदि के पक्षपात से रहित होकर ही भक्ति हो सकती है और सांसारिक माया मोह से मुक्त होने पर ही ज्ञान प्राप्त होता है। जो लोग मान-अपमान, सुख - दुःख, हर्ष - शोक तथा पाप - पुण्य से मुक्त होते हैं, उन्हीं की मुक्ति होती है। जो लोभ से रहित हो जाता है, वह बंधन मुक्त हो जाता है। [97]
कहता हूं कहि जात हूं, कहूं बजाये ढोल।
श्वासा खाली जात है, तीन लोक का मोल।।
कबीरदास कहते है कि मै कहता हूँ, और कहते हुये जाता हूँ और शोर मचाकर ढोल बजाकर कह रहा हूँ कि प्रभु के सुमिरन के बिना प्रत्येक श्वास व्यर्थ जा रही है। यह श्वास तीनो लोको में अनमोल है। इसलिये प्रत्येक श्वास के साथ प्रभु का सुमिरन करो। [96]
ऊंचा महल चुनाइया, सुबरन कली ढुलाय।
वे मंदिर खाली पड़े, रहै मसाना जाय।।
कबीरदास कहते है कि सुख सुविधा लिये ऊंचे ऊंचे महल बनवाये। उसमे सुन्दर सुनहरे रंग के बेल बूटे बनवाये। परन्तु एक दिन ऐसा आया कि वह महल खाली पड़े रह गये और उनको बनवाने वाले शमशान में पहुँच गए। अर्थात कितने ही बड़े बड़े महल, मंदिर बनवा लो, परन्तु काल के ग्रास से कोई नहीं बच सकता है। [95]
सहज मिलै सो दूध है, मांगि मिलै सो पानी।
कहै कबीर वह रक्त है, जामे एैचा तानी।।
कबीरदास कहते है कि जो वस्तु सहजरूप वह दूध के समान है। जो वास्तु मांगने से मिले वह पानी से समान है और जो वस्तु खींचतान, झकझक करके मिले वह रक्त से समान है। [94]
कबीर माया रुखरी, दो फल की दातार।
खाबत खर्चत मुक्ति भय, संचत नरक दुआर।।
कबीरदास कहते है कि माया ऐसे वृक्ष की तरह है जो दो प्रकार के फल देती है। यदि माया को अच्छे कार्यो में खर्च किया जावे तो मुक्ति प्राप्त होती है, परन्तु इसको संचय करने पर नरक की प्राप्ति होती है। [93]
निश्चल काल गरासही, बहुत कहा समुझाय।
कहै कबीर मैं का कहुँ, देखत ना पतिताय।।
कबीरदास कहते है कि मृत्यु एक दिन निश्चित ही सबको अपना ग्रास बनायेगी। मैने यह बात बहुत समझाई। कबीर कह रहे है कि मै क्या करुँ, लोग आँखों से देखने पर भी विश्वास नहीं कर रहे है। [92]
कबीर माया डाकिनी, सब काहु को खाये।
दांत उपारुन पापिनी, संनतो नियरे जाये।।
कबीरदास कहते है कि माया डाकू के समान है जो सबको खा जाती है अर्थात सबकुछ नष्ट कर देती है। मायारुपी डाकू के दाँत उखाड़ दो और यह संतो की संगति से ही संभव है। संतो की संगत से ही माया से छुटकारा पाया जा सकता है। [91]
कबीर पशु पैसा ना गहै, ना पहिरे पैजार।
ना कछु राखै सुबह को, मिलय ना सिरजनहार।।
कबीरदास कहते है कि त्याग में भी विवेक की आवश्यकता होती है। जिस प्रकार पशु अपने पास पैसा रूपया नही रखते है और न ही जूते पहनते है। वह दूसरे दिन सुबह के लिए भी कुछ बचाकर नहीं रखते है। फिर भी उनका सृजनहार प्रभु से मिलन नहीं हो पाता है। [90]
कहा सिखापना देत हो, समुझि देख मन माहि।
सबै हरफ है द्वात मह,द्वात ना हरफन माहि।।
कबीरदास कहते है कि मै कितनी भी शिक्षा देता रहूँ। परन्तु तुम स्वयं अपने मन में समझों। सभी अक्षर दवात में है, पर दवात अक्षर में नहीं है। इसी प्रकार यह संसार परमात्मा में है, परन्तु परमात्मा इस सृष्टि से भी बाहर तक असीम है। [89]
सकट ते संत होत है, जो गुरु मिले सुजान।
राम-नाम निज मंत्र दे, छुड़वै चारों खान।।
कबीरदास कहते है कि किसी निगुरे व्यक्ति को भी अनुभवों से पूर्ण सद्गुरु मिल जाये तो, सद्गुरु अपने आत्मज्ञान की साधना से उसे संसार की चारों खानि से छुड़ा सकते है। ऐसे सतगुरु की संगति से कुमार्गी भी सत्मार्ग पर चलने लगते है। [88]
गुरु गोविन्द दोउ एक हैं, दूजा सब आकार।
आपा मेटै हरि भजैं, तब पावैं दीदार।।
कबीरदास कहते है कि गुरु और गोविन्द दोनों एक समान हैं, केवल नाम अंतर है। गुरु का बाहर से रूप आकार कुछ भी हो, परन्तु भीतर से कोई अंतर नहीं होता है। अतः अहंकार को त्यागकर, आत्म साधना करने से हरि स्वरुप सद्गुरु दर्शन की प्राप्ति होती है। [87]
दुनिया सेती दोसती, होय भजन में भंग।
एका एकी राम सों, कै साधुन के संग।।
कबीरदास कहते है कि दुनिया के लोगों के साथ मेल मिलाप तथा दोस्ती करने से भजन साधना में व्यवधान उत्पन्न होता है। अतः केवल राम का प्रेम से सुमिरन करना चाहिये या फिर साधु संतो की संगती करनी चाहिये। अतः ज्ञान आचरण चाहिये। [86]
नाम रसायन प्रेम रस, पीवत अधिक रसाल।
कबीर पीवन दुर्लभ है, मांगै शीश कलाल।।
कबीरदास कहते है कि सद्गुरु से प्राप्त ज्ञान का रसायन, प्रेमरस पीने में बहुत मधुर होता है। यह प्रेम रस सभी को सुलभ नहीं है और इसका पीना भी दुर्लभ है। इस रस को प्राप्त करना बहुत कठिन है। इसको प्राप्त सम्पूर्ण रूप से अहन अहंकार त्यागकर सद्गुरु के प्रति सम्पर्पित होना होता है। [85]
मन जो सुमिरे राम को, राम बसै घट आहि।
अब मन रामहि ह्वै रहा, शीश नवाऊं काहि।।
कबीरदास कहते है कि एकाग्रचित्त होकर राम का सुमिरन करने से मन, ह्रदय सब राममय हो गया है। अब सब कुछ राममय प्रतीत होता है। तो अब मै किसके आगे शीश झुकाऊ। [84]
कबीर कुसंग न कीजिये, पाथर जल न तिराय।
कदली सीप भुजंग मुख, एक बूंद तीर आय।।
कबीरदास कहते है कि कभी भी कुसंगति मत करो। जैसे पत्थर पर बैठकर नदी पार नहीं की जा सकती है, वैसे ही कुसंगति से भला नहीं हो सकता है। स्वाति नक्षत्र की बूंद केले में पड़ने से कपूर, सीपी में पड़ने से मोती और सर्प के मुंह में पड़ने से विष हो जाती है अर्थात संगति के अनुसार बूंद परिवर्तित हो जाती है। [83]
खोद खाद धरती सहै, काट कूट बनराय।
कुटिल बचन साधू सहै, और से सहा न जाय।।
कबीरदास कहते है कि धरती को कितना ही खोदो वह सब सहन कर लेती है। जंगल को कितना ही काटो वह सब सहन कर लेता है। इसी प्रकार दुष्टो के कठोर कड़वे वचनो को केवल साधु ही सहन कर सकते है। सामान्य व्यक्ति सहन नहीं कर सकता है अर्थात लड़ाई झगड़े की संभावना रहती है। [82]
दुख सुख एक समान है, हरष शोक नहिं व्याप।
उपकारी निहकामता, उपरै छोह न ताप।।
कबीरदास कहते है कि साधु व्यक्ति दुःख सुख को एक समान मानते हैं। उन्हें दुख सुख व्याकुल नहीं करते हैं। वह सदैव निःस्वार्थ भाव से दूसरों का उपकार करने वाले होते हैं। उनके मन में क्रोध या तपन-जलन उत्पन्न नहीं होती अर्थात वह शांत ह्रदय और निर्मल मन के होते हैं। [81]
अपने पहरै जागिये, ना परि रहिये सोय।
ना जानौ छिन एक में, किसका पहिरा होय।।
कबीरदास कहते है कि इस संसार में मोह में पड़कर क्यों सो रहे हो? मनुष्य जीवन के अवसर को व्यर्थ मत जाने दो। यह आपका अपना पहर (समय) है। इसलिये मनुष्य जीवन में अपने आत्मस्वरूप को जगाओ। न जाने क्षण भर में क्या हो जाये? और यह अवसर आपके हाथ से निकल जाये। [80]
चतुराई क्या कीजिये, जो नहिं शब्द समाय।
कोटिन गुन सूवा पढ़ै,अन्त बिलाय खाय।।
कबीरदास कहते है कि उस चतुराई से क्या फायदा, जिससे गुरुओ के ज्ञान-उपदेश के शब्द भी ह्रदय में नहीं समाते है। जिस प्रकार तोते को करोड़ो गुणों की बातें रटा दो, परन्तु अवसर आने पर उसे बिल्ली खा जाती है। इसी प्रकार गुरुओ के प्रवचन, ज्ञान उपदेश सुनते हुए भी मनुष्य अज्ञानता में यूँ ही मर जाता है। [79]
सांई सो सांचा रहौ, सांई सांच सुहाय।
भावै लंबे केस रखु,भावै घोट मुंडाय ।।
कबीरदास कहते है कि भगवान तो भावो के भूखे होते है। भगवान को बाहरी रूप से कुछ फर्क नहीं पड़ता है। चाहे लंबे लंबे केश रखो या सारे केश मुंडवा लो। भगवान को तो सत्य ही प्रिय होता है और वह सच्चे मनुष्य का ही साथ देता है। [78]
कबीर माया पापिनी, फंद ले बैठी हाट।
सब जग फन्दै पड़ा,गया कबीरा काट।।
कबीरदास कहते है कि यह माया बहुत बड़ी पापिन है, जो इस संसार रूपी बाजार में सुन्दर भोग विलास की सामग्री लेकर अपने फंदे में फंसाने के लिए बैठी है। जिसने सद्गुरु से ज्ञान प्राप्त नहीं किया है, वह इसके फंदे में फंस जाते है और जिसने सद्गुरु के सुधामय ज्ञानोपदेश को ग्रहण किया, वह इसके बंधन को काटकर निकल गये। [77]
गुरु कीजै जानी के, पानी पीजै छानी।
बिना बिचारे गुरु करे,परै चौरासी खानि।।
कबीरदास कहते है कि अच्छी प्रकार से जाँच परख कर, कथनी करनी को देखकर ही गुरु बनाना चाहिए। पानी की गन्दगी को दूर करने के लिए पानी को छानकर पीना चाहिए। जो बिना विचारे गुरु बना लेता है, वह संसार रूपी प्रपंच में पड़ जाता है। अर्थात गुरु स्वयं अज्ञानी हो, प्रपंची हो तो, वह शिष्य का क्या उद्धार करेगा? [76]
हस्ती चढ़िये ज्ञान का, सहज दुलीचा डार।
स्वान रूप संसार है,भूंकन दे झकमार।।
कबीरदास कहते है कि अपने सहज रूप के कालीन को ज्ञान के हाथी पर डालकर सवार हो जाइये, इस बात की चिंता मत करिये कि कौन क्या कह रहा है। यह संसार तो अज्ञानी कुत्ते के समान है, जिसे भौंकने की आदत है, परन्तु हाथी अपनी मस्त चाल से चलता जाता है, उस पर कुत्तों के भौंकने का कोई असर नहीं पड़ता है। इसी प्रकार संसार के लोग भी चुप हो जाते है। [75]
त्रिस्ना अग्नि प्रलय किया, तृप्त न कबहूं होय।
सुर नर मुनि और रंक सब,भस्म करत है सोय।।
कबीरदास कहते है कि पांचों विषयो का त्याग ही वैराग्य है और सभी से भेदभाव रहित समान व्यवहार करना ही ज्ञान कहलाता है. संसार के सभी जीवो से स्नेह करना और सुख देने वाला आचरण करना, भक्ति का सत्य प्रमाण है. गुरु-भक्त में इन सदगुणों का समावेश होता है। [74]
त्रिस्ना अग्नि प्रलय किया, तृप्त न कबहूं होय।
सुर नर मुनि और रंक सब,भस्म करत है सोय।।
कबीरदास कहते है कि तृष्णा की आग इतनी भयंकर होती है की वह प्रलय मचा देती है और फिर भी तृप्ति नहीं होती है और इस तृष्णा की आग में देवता, मनुष्य और साधु, ऋषि सब भस्म हो जाते है। [73]
माखी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रह्यो लिपटाय।
हाथ मलै और सिर धुने,लालच बुरी बलाय।।
कबीरदास कहते है कि मक्खी पिघले हुए गुड़ में गिर जाती है तो उसके पंखो से गुड़ चिपक जाता है। वह लाख सिर पटकती है, हाथ मलती है, लेकिन उसमें निकल नहीं पाती है, उसी प्रकार लालची मनुष्य चारों तरफ से दुःख में फंसता जाता है और उसमें से निकल नहीं पाता है। [72]
'कबीर' नौबत आपनी, दस दिन लेहु बजाय।
यह पुर पट्टन यह गली,बहुरि न देखौ आय।।
कबीरदास कहते है कि मनुष्य को यथाशीघ्र सत्कर्म कर लेने चाहिए। मनुष्य इस संसार में दस दिन मौज कर ले,मृत्यु के बाद यह संसार,नगर,यह गलियां तुझे देखने को भी नहीं मिलेंगी। अर्थात मृत्यु के बाद पुनः मानव देह मिलनी कठिन है, इसलिए जो कुछ सत्कर्म करने है, जल्दी से कर ले। [71]
मांस गया पिंजर रहा, ताकन लागे काग।
साहिब अजहुं न आइया,मंद हमारे भाग।।
कबीरदास कहते है कि शरीर से मांस सूख गया, सिर्फ अस्थि पिंजर रह है जिसे कौए ताकने लगे हैं। फिर भी हमारा प्रिय परमात्मा अब तक नहीं आया है, यह हमारा दुर्भाग्य ही तो है। [70]
'कबीर' कहा गरबियां, ऊंचे देखि वास।
काल्हि परयूं वै लौटणां, ऊपरि जामै घास।।
कबीरदास कहते है कि अभिमान करना व्यर्थ है। जो लोग ऊँचे-ऊँचे महलों में रहने का घमंड करते है, उन्हें भी जब मृत्यु होगी तो जमीन पर ही लेटना पड़ेगा और एक दिन उनकी कब्र पर घांस जम जायेगी। अर्थात इस संसार की सभी वस्तुएं नश्वर है, इसलिये उनका अभिमान व्यर्थ है। [69]
बड़ो बड़ाई ना तजै , छोटा बहुत इतराय।
ज्यों प्यादा फरजी भया, टेढ़ा -मेढ़ा जाय।।
कबीरदास कहते है कि ओछे लोग थोड़ा सा धन,मान,पद पाकर बहुत घमंड करने लगते हैं और जो लोग महान होते हैं, वह अपनी महानता नहीं छोड़ते है, जबकि जो छोटा यानी ओछा होता है, वह इतराने लगता है। जैसे शतरंज के खेल में प्यादा जब फर्जी बन जाता है तो वह टेढ़ी चाल चलने लगता है। [68]
बड़ा हुआ तो क्या हुआ , जैसे पेड़ खजूर।
पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।।
कबीरदास कहते है कि भौतिक रूप से बड़ा होने से किसी को फायदा, जब तक मनुष्य में मनुष्यता नहीं हो। जैसे खजूर का पेड़ बड़ा तो बहुत होता है परन्तु उसके फल बहुत दूर लगते है और उसके नीचे बैठकर कोई पथिक थोड़ी देर आराम भी नहीं कर सकता है। [67]
जब घट मोह समाइया, सबै भया अंधियार।
निर्मोह ग्यान बिचारि कै, कोइ साधू उतरे पार।।
कबीरदास कहते है कि जब ह्रदय में मोह का समावेश हो जाता है तो चारों ओर अँधेरा ही अंधेरा छा जाता है। जो साधु मोह छोड़कर ज्ञान से विचार करता है, वही इस संसार सागर से पार उतरता है। [66]
की त्रिस्ना है डाकिनी, की जीवन का काल।
और और निसु दिन चहै, जीवन करै निहाल।।
कबीरदास कहते है कि मनुष्य के जीवन का कोई भरोसा नहीं है कि कब काल का ग्रास बन जाये। फिर भी तृष्णा रूपी डायन मनुष्य को सदैव रात-दिन बेचैन रखती है अर्थात मनुष्य कभी संतोष नहीं करता है, वह सदैव मांगता रहता है। [65]
दसों दिसा से क्रोध की, उठी अपरबल आगि।
सीतल संगत साध की, वहां उबरिए भागि।।
कबीरदास कहते है कि दसों दिशाओं से क्रोध की भीषण आग उठ रही है अर्थात चारो ओर दुष्प्रवृतियों की भीषण आग जल रही है। इससे बचने के लिए साधु की शीतल संगति में जाना चाहिए, क्योकि वहीं इस आग से ठंडक मिल सकती है। [64]
मैं मैं बड़ी बलाय है, सको तो निकसो भागि।
कबे 'कबीर' कब लगि रहै, रुई लपेटी आगि।।
कबीरदास कहते है कि अहंकार बहुत बुरी चीज़ है। अहंकार के जंजाल से यथाशीघ्र बाहर निकल आओ। जैसे रुई में जरा सी चिंगारी आग लगा देती है, उसी प्रकार अहंकार मनुष्य का सर्वनाश कर देता है। [63]
जहं आपात तहं आपदा, जहं संसय तहं सोग।
कह 'कबीर' कैसे मिटै, चारों दीरघ रोग।।
कबीरदास कहते है कि अहंकार से विपत्ति आती है और संदेह से दुख होता है. अहंकार, आपत्ति, संशय और शोक ये चारों भयंकर रोग हैं, इनसे कैसे छुटकारा मिल सकता है? [62]
सब घट मेरा साइयां, सुनो सेज न कोय।
बलिहारी वा घट्ट की, जो घट परगट होय।।
कबीरदास कहते है कि प्रभु सभी के मन में रहते है, परन्तु केवल आत्मज्ञानी के मन में ही प्रकट होते है। ऐसा कोई ह्रदय नहीं है जहाँ प्रभु नहीं रहते हो अर्थात जो मनुष्य तप से प्रभु का साक्षात्कार कर लेता है, वह वंदनीय है। [61]
कामी कबहु ना हरि भजय, , मिटय ना संशय सूल।
और गुनाह सब बखशी है,कामी दल ना मूल।।
कबीरदास कहते है कि एक कामी पुरुष कभी ईश्वर की अराधना नहीं करता है। उसके कष्ट और भ्रम का निवारण कभी नहीं होता। अन्य गुनाहो को तो माफ़ किया जा सकता है लेकिन एक कामी को कभी माफ़ नहीं किया जा सकता। [60]
शंकर हु ते सबल है, माया येह संसार।
अपने बल छुटै नहि, छुटबै सिरजनहार।।
कबीरदास कहते है कि यह संसार एक माया है जो शंकर भगवन से भी अधिक बलवान है। इस माया मोह के संसार से अपने स्वयं के प्रयासों से मुक्ति नहीं मिल सकती है। इस संसार से तो केवल ईश्वर ही उभार सकते है। [59]
अंधे मिलि हाथी छुवा, अपने अपने ज्ञान।
अपनी अपनी सब कहै, किस को दीजय कान।।
कबीरदास कहते है कि अनेक अन्धो ने हाथी को छू कर अपना अपना अनुभव बताया। सब अपनी अपनी बातें कहने लगे लेकिन किस अंधे की बात पर विश्वास किया जावे। अर्थात अनेक मूर्खो के होने पर और उनके ज्ञान देने पर किस मूर्ख की बात पर विश्वास किया। [58]
आतम अनुभव सुख की, जो कोई पुछै बात।
कई जो कोई जानयी कोई अपनो की गात।।
कबीरदास कहते है कि परमात्मा से सम्बन्ध पर जो आत्म सुख की प्राप्ति होती है वह किसी के पूछने पर बताया नहीं जा सकता है। इस सुख के अनुभव को जानने के लिए तो स्वयं को प्रयत्न करने होते है। [57]
काम क्रोध मद लोभ की, जब लगि घट में खान।
कहा मूरख, कहा पंडिता, दोनों एक सामान।।
कबीरदास कहते है कि जब मनुष्य मन के अंदर काम, क्रोध, लोभ, घमंड होता है तब तक क्या पंडित और क्या मूर्ख, दोनों एक समान होते है। पंडित और मुर्ख में यही तो अंतर है। पंडित में उपरोक्त विकार नहीं होते है जबकि मूर्ख में होते है। [56]
झूठे सुख को सुख कहै, मानत हैं मम मोद।
जगत चबैला काल कौ, कुछ मुख में कुछ गोद।।
कबीरदास कहते है कि मनुष्य इस संसार के झूठे सुख को सुख कहता है और इन सुखो से मन ही मन प्रसन्न होता है। वास्तव में यह संसार कॉल का भोजन है कुछ मुख में है एयर कुछ इसकी गॉड में है अर्थात मर गए है। [55]
आसपास जोधा खड़े, सभी बजावे गाल।
मंझ महल में ले चला, ऐसा काल कराल।।
कबीरदास कहते है कि काल ऐसा महाबली है जिसके आगे किसी की नहीं चलती है। चारो तरफ बड़े - बड़े शूरवीर खड़े थे, सभी बड़ी बड़ी बातें कर रहे थे, लेकिन जब काल आया तो सबके बीच से भरे महल से उसे उठाकर ले गया. कोई कुछ नहीं कर सका। [54]
'कबीर' संगत साध की, हरै और की व्याधि।
संगत बुरी असाध की, करै और ही व्याधि।।
कबीरदास कहते है कि साधु (सज्जन व्यक्ति) की संगत सभी प्रकार की व्याधि (बीमारी) को हरने वाली होती है जबकि असाधु (दुर्जन व्यक्ति) की संगत व्याधि (बीमारी) को बढ़ाने वाली होती है। अर्थात सज्जन व्यक्ति की संगत से जीवन सरल हो जाता है तथा दुर्जन व्यक्ति की संगत से जीवन और मुश्किल हो जाता है। [53]
जो तू चाहे मुझको, राखो और न आस।
मुझहि सरीखा होड़ रह, सब कुछ तेरे पास।।
कबीरदास कहते है कि ईश्वर मेरे से कह रहा है कि यदि तू मुझे चाहता है तो किसी और से आशा मत रख। यदि तू मेरे जैसा ही हो जाये अर्थात मेरे जैसे गुण ही तू अपने में ले आये तो फिर तेरे पास सब कुछ आ जायेगा। जो जिसका चिंतन करता है स्वतः उसमे वैसे गुण आ जाते है। [52]
'कबीर' थोड़ा जीवना, मांडे बहुत मंडान।
सबही ऊमा मौत मुंह,राव, रंक, सुल्तान।।
कबीरदास कहते है कि मनुष्य का जीवन बहुत थोड़ा होता है और वह प्रबंध बहुत अधिक करता है। जबकि सभी को एक दिन मौत के मुंह में जाना है. इस दुनिया में बड़े से बड़े राजा, सुल्तान भी काल के पाश से नहीं बच सके। [51]
कबीर जीवन कुछ नहीं, खिन खारा खिन मीठ।
कलहि अलहजा मारिया,आज मसाना ठीठ।।
कबीरदास कहते है कि यह जीवन कुछ नहीं है, एक क्षण में खारा और एक क्षण में मीठा हो जाता है। जो योद्धा कल मार रहा था आज वह स्वयं श्मशान में मरा पड़ा है। [50]
दूजा हैं तो बोलिये, दूजा झगड़ा सोहि।
दो अंधो के नाच में,का पै काको मोहि।।
कबीरदास कहते है कि यदि ईश्वर अलग अलग हो तो कुछ कहा जाये और यही सभी झगड़ो की जड़ है. जिस प्रकार दो अंधो के नाच में कौन सा अंधा किस अंधे पर मुग्ध होगा? [49]
ताको लक्षण को कहै,जाको अनुभव ज्ञान।
साध असाध ना देखिये,क्यों करि करुन बखान।।
कबीरदास कहते है कि जिसके पास अनुभव का ज्ञान है उसके लक्षणों के विषय में क्या कहा जाये। ऐसे व्यक्ति समदर्शी होते है। क्योकि यह साधु असाधु में भेद नहीं करते है। [48]
'कबीर' सोया क्या करै , जागि के जपो मुरार ।
एड दिन है सोवना, लांबे पांव पसार ।।
कबीरदास कहते है हे! मनुष्य तु अपना समय सोकर क्यों व्यर्थ कर रहा है। बिना एक पल व्यर्थ किये बिना तुझे ईश्वर की भक्ति में लग जाना चाहिये, क्योकि एक दिन तो तुझे हमेशा के लिए लम्बे पाँव पसार कर सोना ही है। [47]
'कबीर' यह तन जात है, सकै तो राखु बहोरि।
खाली हाथों वे गए, जिनके लाख करोरि।।
कबीरदास कहते है कि मृत्यु के बाद यह शरीर अपना नहीं होता है। कोई रख सकता हो तो रख ले। इस संसार में जिनके पास लाखो करोड़ो की संपत्ति थी, वह इस संसार से खाली हाथ चले गए। अर्थात मृत्यु के बाद मनुष्य के साथ उसका पुण्य ही जाता है और सब कुछ यही रह जाता है। [46]
चाह गई चिंता मिटी, मनुवा बेपरवाह।
जिनको कछू न चाहिए, सो जग साहन साह।।
कबीरदास कहते है कि यदि मनुष्य सुख चाहता है, अपनी चिंताए मिटाना चाहता है तो उसे अपनी इच्छाओ को समाप्त कर देना चाहिए। क्योकि इच्छाये समाप्त होने से मन की समस्त चिंताए समाप्त हो जाती है और उसका मन मस्त हो जाता है तथा उसको किसी बात की परवाह नहीं होती है। जिसे इस संसार में किसी वस्तु इच्छा नहीं होती है वही संसार के शाहो का शाह है। [45]
पाव पलक की सुधि नहिं, करै काल्ह का साज।
काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर कौं बाज।।
कबीरदास कहते है कि भविष्य की जरूरतों की पूर्ति के लिए वर्तमान का सुख ख़राब मत करो।पल भर का तो भरोसा नहीं है और मनुष्य भविष्य के लिए योजनाए बनता रहता है। जैसे तीतर को बाज अचानक मार डालता है, वैसे ही न जाने कब तुम काल के ग्रास बन जाओ। [44]
कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय।
भक्ति करै कोई सूरमा, जाति बरन कुल खोय।।
कबीरदास कहते है कि जो मनुष्य कामी, क्रोधी, लालची होता है, वह भक्ति नहीं कर सकता है। भक्ति तो ऐसा शूरवीर ही कर सकता है, जो जाति, वर्ण और कुल की परवाह किये बिना प्रभु से प्रेम करता है। [43]
हेत प्रीति से जो मिलै, तासों मिलिए धाय।
अन्तर राखे जो मिले, तासों मिले बलाय।।
कबीरदास कहते है कि हमसे जो प्रेम और हित से मिले, उसे दौड़कर गले लगाना चाहिए तथा जो मन में भेद भाव रखता है उससे से मिलना सही नहीं है। अर्थात प[प्रेम करने वालो से ही प्रेम करना चाहिए, कपटी से नहीं। [42]
'कबीरा' गरब न कीजिए,काल गहे करकेस।
ना जानौ कित मारिहै,क्या घर क्या परदेस।।
कबीरदास कहते है कि मनुष्य को इस नश्वर शरीर पर कभी घमण्ड नहीं करना चाहिए। क्योकि काल कही भी घर के अंदर या बाहर, किसी भी समय इसे समाप्त कर सकता है। जो लोग इस नश्वर शरीर पर घमण्ड करते है वह लोग मुर्ख है। [41]
भरा होये तो रीतै, रीता होये भराय।
रीता भरा ना पाइये, अनुभव सोयी कहाय।।
कबीरदास कहते है कि एक धनी निर्धन हो सकता है और निर्धन धनी हो सकता है। परन्तु अनुभव यह कहता है कि जिसके ह्रदय परमात्मा से भरा होता है वह ह्रदय कभी खली नहीं होता है। वह हमेशा पूर्ण ही रहता है। [40]
नर नारी के सुख को, खांसि नहि पहिचान।
त्यों ज्ञानि के सुख को, अज्ञानी नहि जान।।
कबीरदास कहते है कि जिस प्रकार नर नारी के मिलन के सुख को एक नपुंसक नहीं समझ सकता है उसी प्रकार एक ज्ञानी के सुख को अज्ञानी नहीं समझ सकता है। [39]
सो दिन गया अकाज में संगत भई ना संत।
प्रेम बिना पशु जीवना भाव बिना भटकन्त।।
कबीरदास कहते है की सैकड़ो दिन व्यर्थ गवा दिए और हमने एक भी दिन साधु की संगत नहीं करी। प्रेम के बिना मनुष्य का जीवन पशु के सामान है जो बिना भावो के केवल इधर उधर भटकता रहता है। [38]
साधु बडे संसार मे हरि ते अधिका सोये।
बिन ईच्छा पूरन करे साधु हरि नहीं दोए।।
कबीरदास कहते है कि इस संसार में साधु का स्थान परमात्मा से भी बड़ा है। साधु बिना इच्छा किये भी सभी काम पूर्ण कर देते है। साधु और परमात्मा में कोई अंतर नहीं है। [37]
और देव नहि चित्त बसै, मन गुरु चरन बसाय।
स्वल्पाहार भोजन करुँ, तृष्णा दूर पराय।।
कबीरदास कहते है कि जिसका मन एक बार गुरु के चरणों में बस जाता है उसका मन अन्य किसी देवी देवता में नहीं लगता है. ऐसा व्यक्ति स्वयं अपने हाथ से बनाया भोजन करता है और तृष्णा से दूर रहता है। [36]
यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय।
सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय।।
कबीरदास कहते है किगुरुजनो को ज्ञान (उपदेश, मन) एक सच्चे सेवक (शिष्य) को ही देना चाहिए। ऐसा शिष्य जिसके सर के ऊपर यदि आरी भी रख दी जावे तो भी उसकी श्रद्धा गुरु के प्रति बनी रहे। [35]
दुनिया सेती दोसती, मुआ होत भजन में भंग।
एका एकी राम सों, कै साधुन के संग।।
कबीरदास कहते है कि इस दुनिया में मनुष्य दोस्ती को ज्यादा महत्त्व देता है चाहे इससे ईश्वर के भजन में बाधा ही क्यों न आये . यदि मनुष्य ईश्वर की साधना में मगन रहे तो उसको साधुओ की दोस्ती से भी क्या मतलब? [34]
कबीर यह तन जात है, सको तो राखु बहोर।
खाली हाथो वह गये, जिनके लाख करोर।।
कबीरदास कहते है कि यह शरीर क्षणभंगुर है। इसकी कितनी ही देखभाल कर लो, यह हर पल मृत्यु की और बढ़ रहा है। इसलिए समय पर सजग हो जाओ और अपने कल्याण में लग जाओ। वह लोग भी इस दुनिया से खाली हाथ जाते है जिनके पास लाखो करोड़ो होते है। [33]
रुखा सूखा खाइकै, ठंडा पानी पीव।
देख विरानी चूपड़ी, मन ललचावै जीव।।
ईश्वर ने जो कुछ भी दिया है, उसी में संतोष करना चाहिए। यदि ईश्वर ने रूखी सूखी दो रोटी दी है तो उसे ही ख़ुशी खाकर ठंडा पानी पीकर सो जाना चाहिए। दुसरो की घी की चुपड़ी रोटी देखकर मन नहीं ललचाना चाहिए। [32]
मनुष जनम दुर्लभ अहै, होय न बारम्बार।
तरुवर से पत्ता छरै, बहुरि न लागै डार ।।
कबीरदास कहते हैं कि मनुष का जन्म बडा दुर्लभ होता है। यह बार बार नहीं मिलता है। जैसे पेड़ से पत्ता गिरने के बाद वह पुनः डाली पर नहीं लगता है। इसी प्रकार एक बार मृत्यु बाद मनुष्य का जीवन मिलना बहुत दुर्लभ है। [31]
गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल।
लोक वेद दोनों गये, आगे सिर पर काल।।
कबीरदास कहते है कि जो गुरु के आदेशों को नहीं मानता है और मनमाने ठंग से चलता है उसके लोक परलोक दोनों बेकार हो जाते है तथा उसके सिर पर काल मंडराने लगता है। [30]
उलटे सुलटे बचन के, सीस ना मानै दुख।
कहै कबीर संसार मे, सो कहिये गुरु मुख।।
कबीरदास कहते है कि इस संसार में वही शिष्य सच्चा गुरुमुख होता है जो गुरु की सही गलत बातो का बुरा नहीं मानता है। [29]
आंधी आयी ज्ञान की, ढाहि भरम की भीती।
माया टाटी उर गयी, लागी राम सो प्रीति।।
कबीरदास कहते है कि जब ज्ञान की आँधी आती है तो भ्रम की दीवार ढह जाती है, मायारुपी पर्दा उड़ जाता है और प्रभु से प्रेम का सम्बन्ध जुड़ जाता है। [28]
बेटा जाय क्या हुआ, कहा बजाबै थाल।
आवन जावन हवै रहा, ज्यों किरी का नाल।।
कबीरदास कहते है कि पुत्र के जन्म से ऐसा क्या हुआ? थाली पीट कर ख़ुशी क्यों मना रहे हो? इस दुनिया में आना जाना लगा ही रहता है जैसे की नाली में कीड़े पंक्तिबद्ध होकर आते जाते रहते है। [27]
चलती चाकी देखि के, दिया कबीरा रोये।
दो पाटन बिच आये के, साबुत गया ना कोये।।
कबीरदास कहते है कि चलती चक्की को देखकर रोना आता है। क्योकि जिस प्रकार चक्की के दो पाटो के बीच दाना साबुत नहीं बच सकता है उसी प्रकार जन्म मरण रूपी दो पाटो के बीच कोई मनुष्य जीवित नहीं रह सकता है। [26]
कागत लिखै सो कागदी, को व्यहारि जीव।
आतम द्रिष्टि कहां लिखै, जित देखो तित पीव।।
कबीरदास कहते है की शास्त्रों में कागजो पर लिखी बाते तो महज दस्तावेज है। वह जीव का व्यवहारिक अनुभव नहीं है। आत्म दृष्टी से जो अनुभव प्राप्त होता है वह कहीं लिखा नहीं होता है। इसी अनुभव से हम जहाँ भी देखते है परमात्मा को ही पाते है। [25]
कबीर संगत साध की, ज्यों गंधी का बास।
जो कुछ गंधी दे नहीं, तो भी बास सुबास।।
कबीरदास कहते है की साधु संगत ऐसी होती जैसी इत्र बेचने वाले का निवास स्थान होता है। यदि इत्र बेचने वाला किसी को इत्र न भी दे, तो भी उसके निवास स्थान से सुगंध आती ही है। इसी प्रकार साधु की संगती से मनुष्य को आनंद ही आनंद की प्राप्ति होती है। [24]
माटी कहै कुम्हार कौं, तू क्या रौंदे मोहि।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोहि।।
कबीदास कहते है कि इस संसार में कभी किसी के दिन एक जैसे नहीं होते है। मिट्टी कुम्हार से कहती है कि आज तू मुझे रौंद रहा है परन्तु एक दिन ऐसा आएगा (मृत्यु होने पर) जब में तुझे रौंदूगी। [23]
कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूँढै बन माहिं।
ऐसे घट में पीव हैं, दुनिया जानै नाहिं।।
कबीरदास कहते है कि जिस प्रकार कस्तूरी मृग की नाभि में होती है, परन्तु उसको इसका ज्ञान नहीं होता है और वह इसकी सुगंध में पागल होकर जंगल में इधर उधर भागा फिरता है। इसी प्रकार ईश्वर मनुष्य के अंदर होता है और वह उसे बाहर ढूंढता फिरता है। [22]
बलिहारी गुरु आपनो, घडी घडी सौ सौ बार।
मानुष से देवत किया करत न लागी बार।।
कबीरदास कहते है कि मै अपने गुरु पर प्रत्येक क्षण सौ सौ बार न्यौछावर करता हूँ, जिसने बिना विलम्ब के मुझे मनुष्य से देवता बना दिया। [21]
जिन ढूंढा तिन पाइयां, गहिरे पानी पैठि।
मैं बपुरा बूड़न उरा, रहा किनारे बैठि।।
कबीरदास कहते है कि गहरे पानी में जाने के डर से मै किनारे पर बैठा बैठा बूढ़ा ही गया परन्तु मुझे कुछ प्राप्त नहीं हुआ। यदि मनुष्य कुछ पाना चाहता है तो उसे गहरे पानी में जाना ही पड़ता है, किनारे पर बैठने से कुछ नहीं मिलता। इसी प्रकार जिस मनुष्य को ईश्वर की प्राप्ति करनी है उसे तप तपस्या के कठिन मार्ग पर चलना ही पड़ता है, तभी उसे ईश्वर की प्राप्ति होती है। [20]
कुसल कुसल ही पूछते, जग में रहा न कोय।
जरा मुई ना मय मुआ, कुसल कहां ते होय।।
कबीरदास कहते है कि इस में भय और बुढ़ापा कभी नहीं मरते। सभी एक दूसरे की कुशलता पूछते रहते है फिर भी कोई कुशल नहीं होता है। जब तक मनुष्य के मन से बुढ़ापा और मृत्यु का भय नहीं निकल जाता है तब तक वह खुश नहीं रह सकता है। [19]गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविन्द दियो बताय।।
कबीरदास कहते है कि गुरु और गोविन्द दोनों खड़े है. अब मै किसके चरणों को स्पर्श करू? चूँकि गुरु ही सही मार्ग बताता है और गुरु के बताये मार्ग पर चलकर ही गोविन्द (ईश्वर) को प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए पहले गुरु के चरण स्पर्श करुँगा। [18]
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर।।
कबीरदास कहते है कि जब तक हम अपने मन के मेल को साफ नहीं करते है। हमारा मन पवित्र नहीं होता है तब तक हाथ में माला लेकर उसको फेरते रहने से कुछ लाभ नहीं होने वाला है। [17]
तिनका कबहुँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय।
कबहुँ उड़ आँखों पड़े, पीर घानेरी होय।।
कबीरदास कहते है कि कभी भी किसी को भी तुच्छ नहीं समझना चाहिए। जिस प्रकार पांवो में पड़ा एक छोटा तिनका भी उड़कर जब आँख में चला जाता है तो वह भी आँख में गहरा घांव कर देता है। [16]
दुःख में सुमरिन सब करे, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमरिन करे, दुःख कहे को होय।।
कबीरदास कहते है कि दुःख आने पर सभी भगवान को याद करते है परन्तु सुख के दिन होने पर कोई भगवान को याद नहीं करता। यदि मनुष्य सुख के दिनों में ही भगवान को याद करे तो उसको किसी प्रकार का कोई दुःख ही नहीं होगा। [15]
हौको परबत फाटते, समुंदर घूंट भराय।
ले मुनिवर धरती गले, क्या कोई गर्व कराय।।
कबीरदास कहते है की जिनकी एक आवाज़ से पर्वत फट जाते थे, जो एक घूंट में ही पूरा समुद्र पी लेते थे, ऐसे मुनिवर भी पृथ्वी पर नहीं बचे, फिर इस जीवन पर क्या गर्व करना। अर्थात इस धरा पर कोई भी अमर नहीं है। [14]
हाड़ जरै ज्यों लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास।
सब जग जरता देख करि, भयो 'कबीर ' उदास।।
कबीरदास कहते है कि मरने के बाद हड्डियां लकड़ी की तरह, केश घास की तरह जल जाते हैं। जब हमारे शरीर का कोई अंग स्थाई नहीं रहने वाला है तो क्यों इस पर शरीर पर हम इतना गुमान करते है। [13]
साधु भया तो क्या भया, बोलै नाहीं विचार।
हतै पराई आतमा, जीभ बांधी तरवार ।।
कबीरदास कहते है की साधु को कटुभाषी नहीं होना चाहिए। जो सोच विचारकर नहीं बोलता है, जिसकी जीभ तलवार की तरह वार कराती है, जो अपने बोलो से किसी की आत्मा का हनन करता है वह साधु कैसे हो सकता है। [12]
जाति न पूछो साध की, पूछि लीजिए ग्यान।
मोल करो तलवार को, पड़ा रहन दो म्यान।।
कबीरदास कहते है की साधु की जाती पूछकर क्या करना? साधु की जाती का कोई महत्व नहीं होता है। महत्त्व तो साधु के ज्ञान का होता है। जिस प्रकार युद्ध में तलवार ही काम आती है। म्यान का कोई उपयोग नहीं होता। [11]
'कबीर' सोया क्या करै, जागन की कर चौप।
ये दम हिरालाल है, गिन-गिन गुरू को सौंप।।
कबीरदास कहते हैं कि हे मनुष्य! तू सो मत, जाग और अपने को गुरु को समर्पित कर दे, क्योकि तेरे जीवन की हर साँस हीरे और लाल की तरह कीमती है। इसलिये गिन-गिन कर इन्हें गुरू को सौंप दे जिससे तू ईश्वर प्राप्ति के मार्ग पर लग सके। [10]
पानी केरा बुदबुदा, अस मानुष की जात।
देखत ही छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात।।
कबीरदास कहते है कि मनुष्य का जीवन पानी के बुलबुले की तरह क्षणभंगुर है. जैसे सुबह होते ही तारे छिप जाते हैं, ऐसे ही देखते ही देखते मानव जीवन समाप्त हो जाता है. जिस प्रकार पानी में बुलबुले बनने और मिटने का क्रम लगातार चलता रहता है उसी प्रकार मनुष्य के जीवन मरण का क्रम चलता रहता है। [9]
औगुन को तो ना गहै, गुन ही को ले बीन।
घट-घट महकै मधू ज्यों, परमातम लै चीन्ह।।
कबीरदास कहते है कि साधु को अवगुण छोड़कर गुणों को चुनना चाहिए। साधु को ऐसा होना चाहिए कि उसकी संगत से प्राणी मधु की तरह सुवासित हो जाए और परमात्मा के तत्त्व को पहचानने लगे। [8]
तेरे अंदर सांच जो, बाहर कछु न जमाव।
जाननहारा जानिहै, अंतरगति का भाव।।
जो सच्चा मनुष्य होता है, उसे सत्यता का बखान नहीं करना पड़ता है. कबीरदास कहते हैं कि यदि ह्रदय में सत्य है तो उसे बाहर दिखाने की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर अंतर्यामी है वह सबके के मन के भावो को जनता है। [7]
'कबीर' तू काहे डरै, सिर पर सिरजनहार।
हस्ती चढ़कर डोलिए, कूकर भुसै हजार।।
ईश्वर की कृपा के सहारे जीने वाले व्यक्ति को किसी का डर नहीं होता। कबीरदास कहते हैं कि जैसे हाथी पर चढ़े व्यक्ति का छोटे-छोटे कुत्ते कुछ नहीं बिगाड़ सकते, इसी तरह ईश्वर प्रेमी जीव का सांसारिक लोग कुछ नहीं बिगाड़ सकते है। [6]
आसै पासै जो फिरै, निपटु पिसावै सोय
कीला से लगा रहै, ताको बिधन न होय
कबीरदास कहते है कि जो जीव इधर उधर भटकता रहता है, वह चक्की में पिसने वाले दानों की तरह होता है, परन्तु जो गुरू रूपी किले के साथ एक निष्ठा से चिपक जाता है, उसे कोई परेशानी नहीं आती है। अर्थात जो निष्ठा के साथ गुरू के संरक्षण में रहता है उसे कोई परेशानी नहीं आती है। [5]
कथा कीरत न रात दिन, जाके उद्यम येह।
कह 'क़बीर' ता साधु की, हम चरनन की खेह।।
सच्चे साधु सदैव प्रभु की कथा और कीर्तन में ही लगे रहते है। जिस साधु का रात दिन कथा कीर्तन करना ही काम है, हम उस साधु के चरणों के सेवक हैं। [4]
दान दिए धन ना घटे, नदी घटे न नीर।
अपनी आँखों देखिये, यों कथि गए 'क़बिर'।।
दान मनुष्य की धन सम्पति को बढ़ाता है, घटाता नहीं। जैसे नदी सबको जल देती है, फिर भी उसका पानी कम नहीं होता है। उसी प्रकार दान करने से धन नहीं घटता है। यदि इस बात में संदेह हो तो वह अपनी आँखों से देख सकता है। [3]
करता था क्यों रहा, अब करि क्यों पछिताय।
बोवै पेड़ बबूल का. आम कहां से खाय।।
कबीरदास कहते हैं कि जब तू काम कर रहा था, तब तूने क्यों नहीं सोचा। अब काम कर लेने के पश्चात् पछताने से क्या लाभ? जिसने बबूल का पेड़ बोया हैं, उसे आम के फल खाने को कैसे मिलेंगे? [2]
जहां दया तहं धर्म है, जहां लोभ तहं पाप।
जहां क्रोध तहं काल है, जहां छिमा तहं आप।।
कबीरदास कहते है कि जहां दया है, वहीं धर्म हैं। जहाँ लालच हैं, वहां पाप है। जहां क्रोध हैं, वहीं मृत्यु हैं और जहां क्षमा हैं वहां प्रभु स्वयं विराजमान रहते हैं। [1]
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