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Rahim ke Dohe | रहीम के दोहे



अधम वचन काको फल्यो, बैठी ताड़ की छांह।
'रहिमन' काम न आय हैं, ये नीरस जग मांह।
रहीम दास जी कहते है कि संसार में रहकर दूसरों के काम आने वाले मनुष्य का जीवन ही सार्थक होता है। जैसे ताड़ के वृक्ष की छाया में बैठकर कोई फल नहीं मिलता है उसी प्रकार कटु या निंदनीय वचन का कोई फल नहीं मिलता है। मनुष्य का जीवन ताड़ के वृक्ष के समान नहीं होना चाहिये जिस पर किसी प्रकार का कोई फल नहीं आता है अर्थात दूसरों के काम नहीं आता है। इसी प्रकार जो मनुष्य दूसरों के काम नहीं आता है उसका जीवन नीरस और निरर्थक होता है।[13] 
चाह गई चिन्ता मिटी मनुआ बेपरवाह।
जिनको कछु न चाहिये वे साहन के साह।
रहीम दास जी कहते है कि ऐसा व्यक्ति जिसकी समस्त इच्छा समाप्त हो गई हो, जिसे किसी प्रकार की कोई चिंता नहीं हो, जिसे मन में कोई चाह नहीं हो, जिसे कोई फिक्र नहीं हो, वास्तव में ऐसा व्यक्ति ही राजाओ का राजा शहंशाह होता है। [12]

रहिमन रहिला की भली जो परसै चित लाय ।
परसत मन मैला करे सो मैदा जरि जाय।
रहीम दास जी कहते है कि जिस भोजन को प्यार और स्नेह के साथ परोसा जाता है वह बहुत रुचिकर लगता है, परन्तु जो भोजन मलिन मन के साथ परोसा जाता है ऐसा भोजन जली हुई मैदा के समान होता है। [11] 

जे गरीब पर हित करै, ते 'रहीम' बड़ लोग ।
कहां सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग।
रहीम दास जी कहते है कि जो गरीब से प्रेम करे, उनका हित करे वही बड़े लोग होते हैं। इस संसार में धनी व्यक्तियों से ही प्रेम करने वाले लोग होते हैं, गरीब से प्रेम करने वाले तो कुछ ही महान लोग होते हैं। जिस प्रकार कृष्ण ने अपने गरीब मित्र सुदामा से मित्रता निभाई थी।  [10]

कहु रहीम कैसे निभै बेर केर को संग।
वे डोलत रस आपने उनके फाटत अंग।
रहीम दास जी कहते है कि जैसे  बेर और केल साथ साथ नहीं रह सकते हैं वैसे ही सज्जन और दुर्जन व्यक्ति साथ साथ नहीं रह सकते है। जब बेर की डाली तो अपने रस में हवा में झूमती है और वह केले के पत्तों को फाड़ देती हैं। इसी प्रकार सज्जन व्यक्ति के  दुर्जन व्यक्ति के साथ रहने पर सज्जन व्यक्ति को कभी न कभी अपमानित होना ही पड़ता है।  [09]

जब लगि जीवन जगत में, सुख दुःख मिलन अगोट।
रहिमन फूटे गोट ज्यों परत दुहुन सिर चोट।
रहीम दास जी कहते है कि जब तक इस संसार में जीवन है हमें सब से मिलजुलकर रहना चाहिए।मिलजुलकर रहने से दुःख भी सुख में बदल जाते हैं और अलग रहने से सुख भी दुःख में बदल है। जिस प्रकार चौपड़ के खेल में अकेली गोटी मर जाती है और समूह में रहने वाली गोटी बच जाती है।  [08] 

रहिमन निज की ब्यथा मन ही रारवो गोय
सुनि एति इठि लहै लोग सब बंटि न लहै कोय।
रहीम दास जी कहते है कि अपने मन के दुःख को दूसरों के सामने उजागर करने से लोग हंसी मजाक करते हैं और कोई आपका दुःख नहीं बांटता है। इसलिए अपने दुःख को अपने मन में ही रखना चाहिए और अपने दुःख का मुकाबला स्वयं ही करना चाहिए ।  [07]

मथत मथत माखन रहै, दही मही विलगाय
रहिमन सोई मीत है, भीर परे ठहराय।
रहीम दास जी कहते है कि दही को मथने के बाद ही मक्खन नज़र आता है। सामने विशिष्ट होकर आ जाता है। यही मक्खन मंथन से पहले दिखाई नहीं देता है। ऐसे ही सच्चे मित्र सुख के समय कुछ कम ही दिखाई देते है, लेकिन मुसीबत आने पर वह किसी देव पुरुष की भांति प्रकट हो जाते हैं। अर्थात सच्चा मित्र संकट मोचन होता है।  [06] 

समय दसा कुल देखिकै, सबै करत सनमान
रहिमन दीन अनाथ को, तुम बिन भगवान।
रहीम दास जी कहते है कि इस संसार में जिसका समय अच्छा है, दशा अच्छी है तथा कुल-परिवार अच्छा है, लोग उसी का आदर सत्कार एवं मान सम्मान करते हैं। हे दयासिन्धु भगवान, तुमको छोड़कर दिन-अनाथों का और कौन है? इस संसार  दीन दुखियों के तुम्हीं दीनबंधु हो।  [05] 
रहिमन ओछे नरन सों, बैर भलो न प्रीति
काटे चाटे स्वान के, दुहू भांति विपरीत।
रहीम दास जी कहते है कि यदि नीच लोगों से निरपेक्ष होकर रहा जाए तो अच्छा है। ओछे लोगों से न तो वैर भाव रखना उचित है न ही प्रेम भाव। वैर भाव रखने से वे हानि पहुंचाते हैं और प्रेम भाव रखने से लांछन आरोप लगा देते हैं। इससे मान प्रतिष्ठा घटती है। जिस प्रकार दुत्कारा हुआ श्वान काट लेता है और पुचकारा हुआ श्वान मुंह चाटकर अस्वच्छ कर देता है। अतः हमें ऐसे लोगों से अपने भाव गोपनीय रखने चाहिए। हमें ऐसे लोगों की दृष्टि में अर्थहीन बन जाना चाहिए, जिससे वे  खुद ही हमें अनावश्यक समझने लगें।  [04] 

कहु 'रहीम' कैसे निभै , बेर केर को संग 
वे डोलत रस आपने,उनके फाटत अंग।
रहीम दास जी कहते है कि परस्पर विरोधी स्वभाव वालों की मित्रता नहीं निभ सकती है। जैसे बेर और केले का निर्वाह एक साथ नहीं हो सकता है। बेर तो अपने रस में झूमता रहता है, पर केले के तो अंग ही फट जाते हैं। इसी प्रकार दुर्जन और सज्जन व्यक्ती की मित्रता आपस में नहीं निभ सकती है।  [03] 

तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहिं न पान
कहि 'रहीम' पर कारज हित, संपत्ति संचहि सुजान।
रहीम दास जी कहते है कि जिस प्रकार पेड़ अपने फल नहीं खाता है, सरोवर अपना पानी नहीं पीता है, उसी प्रकार अच्छे लोग अपनी संपत्ति का उपयोग स्वयं के लिए नहीं करके परोपकार में करते है।  [02] 
तासों ही कछु पाइए, कीजै जाकी आस 
रीते सरवर पर गए, कैसे बुझै पियास।
रहीम दास जी कहते है कि हमें उसी व्यक्ति से अपेक्षा रखनी चाहिये, जो हमारी आवश्यकताओ को पूरी करने की सामर्थ्य रखता हो। ऐसे सरोवर के पास जाकर कैसे प्यास बुझ सकती है, जिसमें पानी नहीं हो। उसी प्रकार ऐसे व्यक्ति के पास जाना व्यर्थ है जो आपके काम नहीं आये।[01] 


Comments

  1. Bahut acha bataya apne, rahim das ji dohe ka gurukul99 duwara kiya gaya translation bhi padhe

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