न पश्यति च जन्मान्धः कामानधो नैव पश्यति ।
न पश्यति मदोन्मतो हार्थि दोषात् न पश्यति।।
अर्थात:- जन्म से अंधा व्यक्ति देख नहीं सकता है, कामुकता में अंधा, धन में अंधा और अहम् में अंधे व्यक्ति को भी कभी अपने अवगुण नहीं दिखाई देते हैं । [45]
जानीयात् प्रेषणे भृत्यान् वान्धवान् व्यसनागमे।
मित्रं चापदि काले च भार्यां च विभवक्षये ।।
अर्थात:- काम के समय सेवक की निष्ठा और ईमानदारी का, विपत्ति में मित्र का और धन संपदा की हानि होने पर पत्नी के प्यार की सत्यता का पता चलता है । [44]
उत्सवे व्यसने चैव दुर्भिक्षे राष्ट्रविप्लवे।
राजद्वारे श्मशाने च यतिष्ठति स वान्धवः ।।
अर्थात:- सच्चा दोस्त वही होता है जो अच्छे समय, बुरे समय, सूखा, दंगा, युद्ध, राजा के दरबार में और मृत्यु के बाद भी साथ खड़ा हो । [43]
दूरस्थाः पर्वताः रम्याः वेश्याः च मुखमण्डने ।
युध्यस्य तु कथा रम्या त्रीणि रम्याणि दूरतः ।।
अर्थात:- पर्वत दूर से बहुत अच्छे लगते हैं। मुख को विभुषित करने के बाद वैश्या भी अच्छी दिखती है। युद्ध की कहानियां सुनने में बहुत अच्छी लगती है। परन्तु यह चीजें दूर से ही अच्छी लगाती हैं , परन्तु इनकी वास्तविकता बहुत अलग होती है । [42]
उपाध्यात् दश आचार्यः आचार्याणां शतं पिता ।
सहस्रं तु पितृन माता गौरवेण अतिरिच्यते।।
अर्थात:- एक आचार्य उपाध्याय से दस गुना श्रेष्ठ होते है । एक पिता सौ आचार्यो के समान होते है। माता, पिता से हज़ार गुना श्रेष्ठ होती है। [41]
दूरतः शोभते मूर्खो लम्बशाटपटावृतः।
तावच्च शोभते मूर्खो यावत्किञ्चिन्न भाषते ।।
अर्थात:- एक मूर्ख व्यक्ति महँगे वस्त्र पहनकर दूर से ज्ञानवान प्रतीत होता है, परन्तु जब किसी विषय पर वह अपना मुँह खोलता है तो उसकी अज्ञानता प्रकट हो जाती है । [40]
धनहीनो न च हीनच्श धनिक स सुनिच्श्यः।
विद्या रत्नेन हीनो यः स हीनः सर्ववस्तुषु ।।
अर्थात:- ऐसा निर्धन व्यक्ति , जिसके पास ज्ञान है, उसे हीन नहीं समझना चाहिए , क्योंकि वह अपने ज्ञान से धन का अर्जन कर धनवान बन सकता है। परन्तु अज्ञानी व्यक्ति का कहीं भी सम्मान नहीं होता है। वह प्रत्येक जगह अयोग्य और तुच्छ माना जाता है। [39 ]
वरमेको गुणी पुत्रो न च मूर्खशतान्यपि ।
एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च तारगणोऽपिच ।।
अर्थात:- एक गुणवान पुत्र हज़ार अवगुणी पुत्रों से ज्यादा अच्छा है। जिस प्रकार आकाश अनेकों तारों की तुलना में अकेले एक चन्द्रमा से रोशन हो जाता है, उसी प्रकार एक गुणवान पुत्र ही हज़ारों अवगुणी पुत्रों की तुलना में कुल का नाम रोशन कर देता है। [38 ]
चन्दनं शीतलं लोके , चन्दनादपि चन्द्रमाः।
चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः ।।
अर्थात:- चन्दन के लेप को सबसे शीतल माना गया है , चन्द्रमा इससे भी ज्यादा शीतलता प्रदान करता है। लेकिन सज्जनो की संगती सबसे अधिक शीतलता और शांति प्रदान करने वाली होती है । [37 ]
बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः।
श्रुतवानपि मुर्खोऽसौ यो धर्मविमुखो जनः ।।
अर्थात:- ऐसे व्यक्ति जो कर्मठ नहीं होते है , अपना धर्म नहीं निभाते हैं , वह शक्तिशाली होते हुए भी निर्बल हैं, धनी होते हुए भी निर्धन हैं और ज्ञानी होते हुई भी अज्ञानी है । [36 ]
चला लक्ष्मीश्चलाः प्राणाश्चलं जीवित -यौवनम् ।
चलाचले च संसारे धर्म एको हि निश्चलः।।
अर्थात:- लक्ष्मी अर्थात धन आता है, चला जाता है। जीवन में यौवन चला जाता है और एक दिन प्राण भी चले जाते है। इस संसार में आना जाना लगा रहता है। परन्तु धर्म ही इस संसार में निश्चल अर्थात स्थाई है। [35]
शोको नाशयते धैर्य , शोको नाशयते श्रृतम् ।
शोको नाशयते सर्वं , नास्ति शोकसमो रिपुः ।।
अर्थात:- शोक से धैर्य, ज्ञान और सर्वस्व का नाश हो जाता है। इसलिये शोक के सामान कोई अन्य शत्रु नहीं होता है। [34]
शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे ।
साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने ।।
अर्थात:- जिस प्रकार प्रत्येक पर्वत पर मणि माणिक्य , प्रत्येक हाथी के मस्तक पर मुक्ता मणि और प्रत्येक वन में चन्दन का वृक्ष नहीं होता है, उसी प्रकार इस संसार में साधु भी दुर्लभ है। [33]
दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये सञ्चयो न कर्तव्यः।
पश्येह मधुकरीणां सञ्चित्मर्थम् हरन्त्यन्ये ।।
अर्थात:- धन को दान कर देना चाहिये या अपने स्वयं के उपयोग में लेना चाहिये परन्तु इसका संचय नहीं करना चाहिये । क्योंकि मधुमक्खियों द्वारा संचित धन अर्थात मधु को अन्य हर कर ले जाते है। [32]
जन्ममृत्यु हि भुवनक्त्येकः शुभाऽशुभम् ।
नरकेषु पतत्येक एको याति परां गतिम् ।।
अर्थात:- एक व्यक्ति अकेले ही इस संसार में जन्म लेता है, उसे अकेले ही अच्छे कर्मों का फल मिलता है , बुरे कर्मों का दण्ड भुगतना पड़ता है और एक दिन वह अकेला ही इस संसार को छोड़ देता है । [31]
यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् ।
आलस्य कुतो विद्या,अविद्यस्य कुतो धनम्।
अधनस्य कुतो मित्रम्, अमित्रस्य कुतः सुखम्।।
एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्धयति ।।
अर्थात:- जिस प्रकार रथ एक पहिये पर नहीं चल सकता है उसे अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिये दोनों पहियों की आवश्यकता होती है उसी प्रकार मनुष्य केवल भाग्य के सहारे अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता है। उसे अपना भाग्य सिद्ध करने के लिये पुरुषार्थ करना आवश्यक होता है । अर्थात पुरुषार्थविहीन मनुष्य का भाग्यसिद्ध नहीं होता है । [30]
कोकिलानां स्वरो रूपं नारीरूपं पतिव्रता।
विद्यारूपं कुरुपाणां क्षमारूपं तप्स्वीनाम्।।
विद्यारूपं कुरुपाणां क्षमारूपं तप्स्वीनाम्।।
अर्थात:- कोयल का स्वर उसका रूप है। पत्नी का रूप उसका पति है। कुरूप व्यक्ति का रूप उसका ज्ञान है। सज्जन पुरुष का रूप उसकी क्षमाशीलता है। अर्थात बाहरी रूप वास्तविक सुंदरता नहीं है। बल्कि अंदरूनी सुंदरता ही वास्तविक सुंदरता है। [29]
दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यच्शोत्तरदायकः।
ससर्पे च गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः।।
अर्थात:- ऐसा व्यक्ति जिसके पास दुष्ट पत्नी, धोखेबाज मित्र, मुँह पर जवाब देने वाला नौकर और घर में साँप हो, वह व्यक्ति समय से पूर्व ही निश्चित ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । [28]
अधनस्य कुतो मित्रम्, अमित्रस्य कुतः सुखम्।।
अर्थात:- जो आलस्य करता है। उसे विद्या प्राप्त नहीं होती है- जिसके पास विद्या नहीं होती है] उसे धन प्राप्त नहीं होता है- धन के अभाव में मित्र नहीं होते है और मित्र के अभाव में सुख प्राप्ति मुश्किल है। अतः जीवन में विद्या प्राप्त करना बहुत आवश्यक है। [27]
नास्त्युध्यम्समो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।
अर्थात:- मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन आलस्य है और मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र उसका परिश्रम है] जो कभी भी मनुष्य का साथ नहीं छोड़ता है। [26]
यथा ह्येकेन च्रकेन न रथस्य गतिर्भवेत्।
एवम् परुषकारेन विना दैवं न सिद्धयति।।
एवम् परुषकारेन विना दैवं न सिद्धयति।।
अर्थात:- जिस प्रकार एक पहिये पर रथ नहीं चल सकता है। उसी प्रकार लक्ष्य प्राप्ति के लिये भाग्य के साथ - साथ पुरुषार्थ भी आवश्यक होता है। [25]
ब्लवानप्यशक्तोसौ धनवानपि निर्धनः।
श्रुतवानपि मूर्खोअसौ यो धर्मेविमखो जनः।।
श्रुतवानपि मूर्खोअसौ यो धर्मेविमखो जनः।।
अर्थात:- व्यक्ति कर्मशील नही है और अपना धर्म नही निभाता है। वह व्यक्ति बलवान होते हुये भी निर्बल है।] धनवान होते हुये भी निर्धन है और ज्ञानी होते हुये भी अज्ञानी है। [24]
जाडयं थियो हरति सिन्चति वाचि सत्यं, मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति।
चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं, सत्सन्गतिः कथय किं न करोति पुन्साम् ।।
चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं, सत्सन्गतिः कथय किं न करोति पुन्साम् ।।
अर्थात:-अच्छे मित्रो की संगति से एक मूर्ख भी ज्ञानी हो जाता है। असत्य बोलने वाला भी सत्य ;बोलने लगता है। मनुष्य खुश रहने लगता है। उसकी ख्याति चारो और फैलने लगती है। अर्थात उसका सभी प्रकार से भला होने लगता है। [23]
चन्दनं शीतलं लोके, चन्दनादपि चन्द्रमाः।
चन्दनं शीतलं लोके, चन्दनादपि चन्द्रमाः।
चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः।।
अर्थात :- इस लोक में चन्दन सबसे शीतल है और चन्द्रमा उससे भी शीतल है। परन्तु अच्छे व्यक्ति की संगति सबसे ज्यादा शीतलता एवं शांति प्रदान करती है। [22]
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसां।
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसां।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम।।
अर्थात :- अपने पराये कि सोच व्यक्ति को छोटा बना देती है जबकि ऐसा व्यक्ति जो उदार दिल का होता है उसके लिये तो संपूर्ण संसार ही उसका परिवार होता है। [21]
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयं।
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयं।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।।
श्रोत्रं श्रुतेनैव कुंडलेन,छानेन पाणिर्न तु कंकणेन।
विभाति कायः करुणापराणम् परोपकारैर्न तु चन्दनेन।।
पुस्तकस्था तु या विद्या, परहस्तगतं च धनम्।
अर्थात :- महर्षि वेदव्यास के अनुसार परोपकार करना पुण्य एवं पीड़ा पहुंचना पाप है। [20]
श्रोत्रं श्रुतेनैव कुंडलेन,छानेन पाणिर्न तु कंकणेन।
विभाति कायः करुणापराणम् परोपकारैर्न तु चन्दनेन।।
अर्थात :- कानो की शोभा कुण्डल पहनने से नहीं अपितु अच्छी बाते सुनने से है। हाथो की शोभा कंगन पहनने से नहीं अपितु इससे अच्छे कार्य करने से है। शरीर की सुंदरता चन्दन लगाने से नहीं अपितु परोपकार के कार्य करने में है। [19]
पुस्तकस्था तु या विद्या, परहस्तगतं च धनम्।
कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम्।।
अर्थात :- किताबो में छपा ज्ञान एवं दुसरो को दिया गया धन कभी मुसीबत में काम नहीं आते है। [18]
विद्या मित्रं प्रवासेषु, भार्या मित्रं गृहेषु च।
विद्या मित्रं प्रवासेषु, भार्या मित्रं गृहेषु च।
व्याधितस्यौषधं मित्रं, धर्मो मित्रं मृतस्य च।।
अर्थात :- प्रवास के समय ज्ञान, घर में पत्नी, बिमारी में दवाई एवं मृत्यु के समय धर्म मित्र के सामान होता है। [17]
सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्।
सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्।
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुण गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः।।
अर्थात :- जल्दबाजी में किया गया कार्य घर में विपत्तियों को आमंत्रण देता है और जो व्यक्ति सोच समझकर कार्य करता है उसका लक्ष्मी स्वयं चुनाव करती है। [16]
विद्वत्त्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन।
विद्वत्त्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वानं सर्वत्र पूज्यते।।
अर्थात :- विद्वान और राजा की तुलना कभी नहीं करनी चाहिये क्योकि राजा की पूजा तो केवल उसके देश में ही होती है परन्तु विद्वान की पूजा सभी जगह होती है। [15]
पण्डिते च गुणाः सर्वे मूर्खे दोषा हि केवलम्।
पण्डिते च गुणाः सर्वे मूर्खे दोषा हि केवलम्।
तस्मान्मूर्खसहस्त्रेषु प्राज्ञा एको विशिष्यते।।
अर्थात :-विद्वान व्यक्ति में गुण ही गुण होते है और मूर्ख में केवल अवगुण होते है। इसलिये संसार में हजार मूर्खो के स्थान पर एक विद्वान व्यक्ति का सम्मान होता है। [14]
मात्रवत्परदारेषु परद्रवेषु लोष्ट्रवत।
मात्रवत्परदारेषु परद्रवेषु लोष्ट्रवत।
आत्मवत्सर्वभूतेषु यः पश्यति सः पण्डितः।।
अर्थात :- ऐसा व्यक्ति ही पण्डित या सज्जन पुरुष है जो दूसरे कि पत्नी को मा समान, दुसरे के धन को पत्थर के समान और प्रत्येक व्यक्ति को अपना मानता हो। [13]
दुरतः शोभते मूर्खो लम्बशाटपटावृतः।
अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुच्शरितानि च।
दुरतः शोभते मूर्खो लम्बशाटपटावृतः।
तावच्च शोभते मूर्खो यावत्किच्चिन्न भाषते।।
अर्थात :- कोई मुर्ख व्यक्ति अच्छे सुन्दर वस्त्र पहनकर तो दूर से विद्वान दिखता है परन्तु जैसे ही किसी विषय पर कुछ कहता है उसकी मूर्खता सबके सामने प्रकट हो जाती है। [12]
उत्सवे व्यसने चैव दुर्भिक्षे राष्ट्रविप्लवे।
उत्सवे व्यसने चैव दुर्भिक्षे राष्ट्रविप्लवे।
राजद्वारे श्मशाने च चतिष्ठति स वान्धवः ।।
अर्थात :- सच्चा मित्र वही है जो प्रत्येक समय, सभी विपतियों में, सूखे में, दंगों में, युद्ध में, राजा के दरबार में और मृत्यु के बाद भी आपके साथ रहे अर्थात सदैव आपके और आपके परिवार का साथ देवे। [11]
परोक्षे कार्यहन्तारं प्रतक्षे प्रियवादिनम्।
परोक्षे कार्यहन्तारं प्रतक्षे प्रियवादिनम्।
वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम्।।
अर्थात :- ऐसा मित्र जो आपके सामने तो मीठा बोलते है और आपके पीठ पीछे हानि पहुँचता है । ऐसे मित्र को उस पात्र के समान छोड़ देना चहिये जिसमे नीचे कि ओर तो ज़हर भरा हो और ऊपर की तरफ दूध भरा हो। [10]
जानियात् प्रेषणे भृत्यानं वान्धवानं व्यसनागमे।
जानियात् प्रेषणे भृत्यानं वान्धवानं व्यसनागमे।
मित्रं चापदि काले च भार्या च विभवक्षये।।
अर्थात :- सच्चे नौकर की पहचान काम के समय, सच्चे मित्र की पहचान विपत्ति में और धनहीन होने पर पत्नी के सच्चे प्यार की पहचान होती है। [9]
दुर्जनः प्रियवादी च नैव विश्वाकारणम्।
दुर्जनः प्रियवादी च नैव विश्वाकारणम्।
मधु तिष्ठति जीहवाग्रे हृदये तु हलाहलम्।।
अर्थात :- दुर्जन व्यक्ति कितना भी मीठा बोले उसकी बातों पर विश्वास नहीं करना चाहिये, क्योकि उसकी जुबान पर तो मिठास होती है परन्तु उसके मन में जहर भरा होता है। [8]
सर्पः क्रूरः खलः क्रूरः सर्पात् क्रूरतरः खलः।
सर्पः क्रूरः खलः क्रूरः सर्पात् क्रूरतरः खलः।
मन्त्रौषधिवशः सर्पः खलः केन निवार्यते।।
अर्थात :- सर्प भी खतरनाक होता है और दुर्जन व्यक्ति भी खतरनाक होता है, परन्तु दुर्जन व्यक्ति सर्प से भी ज्यादा खतरनाक होता है। क्योकि सर्प को तो मंत्रों और औषध से नियंत्रण में किया जा सकता है, परन्तु दुर्जन व्यक्ति को कैसे नियंत्रण में किया जावे । [7]
अधना धनमिच्छन्ति वाचं चैव चतुष्पदाः।
अधना धनमिच्छन्ति वाचं चैव चतुष्पदाः।
मानवाः स्वर्गमिच्छन्ति मोक्षमिच्छन्ति देवताः।।
अर्थात :- निर्धन को धन की , जानवरो को बोलने की , मनुष्य को स्वर्ग की और देवताओ को मोक्ष की इच्छा होती है। [6]
अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुच्शरितानि च।
वच्चनं चापमानं च मतिमान् न प्रकाशयेत्।।
अर्थात :- एक बुद्धिमान व्यक्ति कभी भी धन की हानि, दुःख के समय, गृह क्लेश, धोखाधड़ी और अपमान के संबंध में बाते नहीं करते है। [5]
धनिकः श्रोत्रियो राज नदी वैद्यस्तु पच्चमः।
धनिकः श्रोत्रियो राज नदी वैद्यस्तु पच्चमः।
पच्च यत्रनविद्यन्ते तत्र वासं न कारयेत्।।
अर्थात :- ऐसा स्थान जहाँ पर विद्वान, राजा, नदी, धनवान व्यक्ति और वैद्य, यह पाँच प्रकार के व्यक्ति नहीं हो, वह पर निवास नहीं करना चाहिए। [4]
यस्मिन् देशे न सम्मानं न प्रीतिर्न च वान्धवाः।
यस्मिन् देशे न सम्मानं न प्रीतिर्न च वान्धवाः।
न च विद्यागमः कच्शित् तं देशं परिवर्ज्जयेत्।।
अर्थात :- ऐसा स्थान जहाँ पर व्यक्ति का सम्मान न हो, कोई मित्र न हो ,प्यार न हो , कोई विद्वान न हो, तो ऐसे स्थान का त्याग कर देना चाहिये। [3]
मनसा चिन्तितं कर्म वचसा न प्रकाशयेत्।
मनसा चिन्तितं कर्म वचसा न प्रकाशयेत्।
अन्यलक्षितकार्यस्य यतः सिद्धिर्न जयते।।
अर्थात :-यदि किसी के मस्तिष्क में किसी कार्य की कोई योजना हो तो, उसे किसी अन्य के सामने प्रकट नहीं करना चाहिये, क्योकि अन्य व्यक्ति उस कार्य में व्यवधान उत्पन्न कर सकता है। [2]
बृथा बृष्टिः समुद्रेषु बृथा तृप्तेषु भोजनम्।
बृथा बृष्टिः समुद्रेषु बृथा तृप्तेषु भोजनम्।
बृथा दानं धनाढेषु बृथा दीपो दिवाऽपि च।।
अर्थात :-समुद्र में वर्षा का होना, तृप्त व्यक्ति को भोजन करवाना, धनवान व्यक्ति को दान देना और दिन के समय दीप जलाना व्यर्थ है। [1]
nice article yada yada hi dharmasya
ReplyDeletenice article sanskrit shlok
ReplyDeleteत्वम् वयस्योऽसि मे ह्रद्यो ह्येकं दुःखं सुखं च नौ ।अर्थ भेजो
ReplyDeletenice article
ReplyDeleteVery..Nice article
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